Wednesday, March 4, 2009


Zeba Hasan
LUCKNOW (21 Feb): बच्चों के लिए अपने दिल के दरवाजे हर वक्त खुले रखने वाले, हर बच्चे को अपने बच्चों सा समझने वाले उमेश जोशी पत्‍‌नी के साथ ओल्ड एज होम में हम हैं तो क्या गम है की तर्ज पर जिन्दगी के हर लम्हे को एंज्वाय कर रहे हैं. यहां वह अकेले ऐसे नहीं हैं. उनके साथ कई सीनियर सिटीजन रहते हैं, कुछ अकेले तो कुछ अपनी पत्‍‌नी के साथ. उमेश जोशी को इस बात का सुकून है कि उन्हें उनकी औलाद ने आश्रम में रहने के लिए नहीं छोड़ा. बीए आनर्स के टॉपर, 1950 में यूनीवर्सिटी की लेक्चररशिप, 38 साल कोलकाता में ऐड मार्केटिंग फील्ड में मैनेजिंग डायरेक्टर, बच्चों को पढ़ाने का शौक उन्हें दोबारा इस शहर में ले आया. आंखों में चमक, चेहरे पर हर वक्त खिली मुस्कुराहट और इस उम्र में भी उनकी फुर्ती दूसरों को भी एनर्जी से भर देती है. उन्होंने भी तीन कसमें खाई थीं. पहली, बचपन में अव्वल आने की कसम, फिर जवानी में देश के लिए कुछ कर गुजरने की कसम, और तीसरी कसम उन्होंने उस वक्त अपनी पत्‍‌नी की सेहत को देखते हुए खाई थी. वो कसम संतान न पैदा करने की थी. आज भी वह अपनी तीसरी कसम लिए फख्र महसूस करते हैं. माडर्न लाइफस्टाइल में यंगस्टर्स डिंक यानी डबल इनकम नो किड्स की बात करते हैं लेकिन उमेश जोशी जैसे लोगों ने तो कई दशक पहले ही इस तरह से जीना सीख लिया था. खुद के बच्चे न होने के सवाल पर वह हंसते हुए कहते हैं कि अच्छा हुआ हमारी औलाद नहीं है. हमें यह दुख तो नहीं है कि हमें हमारी औलाद ने घर के बजाय आश्रम में रहने के लिए छोड़ दिया है. बुजुर्गो की यह दुनिया बसी है जानकीपुरम के समर्पण ओल्ड एज होम में. यहां करीब 35 लोग ऐसे हैं जो अलग अलग कारणों से यहां रह रहे हैं. कोई बच्चों की कलह से तंग था तो किसी के बच्चे विदेश में जाकर बस चुके हैं. कुछ पेरेंट्स के लिए बच्चे खर्च भेज रहे हैं तो कुछ अपनी पेंशन के बल पर यहां जिन्दगी गुजार रहे हैं. ×ñ´ æè ‰ææ ·¤ÚæðǸUÂçÌ बूड़ी आंखों का साथ छोड़ चुकी रोशनी और हिलता हुआ जिस्म. ऐसे में हरकोई चाहता है कि जब वे उम्र के इस पड़ाव पर हो तो उन्हें भी वैसा ही स्नेह मिले जो कभी उन्होंने अपने बच्चों को दिया था. लेकिन करीब 70 साल के बाल कृष्ण अग्रवाल को अब अपने बच्चों से कोई एक्सपेक्टेशन नहीं है. उनकी आख्ंाों में उस वक्त चमक आ जाती है जब वह बताते हैं कि मैं भी करोड़पति था. मैंने भी अपने बेटों को बालविद्या मंदिर में पढ़ाया था. उनकी हर मांग को सिर आंखों पर रखा. मेरी 5 दुकानें थीं. मैंने अपने लिए कुछ नहीं रखा था, लेकिन इसके बाद उनकी आंखों के कोनों पर पीड़ा की लकीर भी दिखी उन्होंने कहा आज मैं खाली हाथ हूं. बेटा अच्छी जगह नौकरी कर रहा है, लेकिन मुझसे कहता है कि मैं तुम्हारा बेटा नहीं हूं. कोई बात नहीं. सब खुश रहें. फिर भी जिंदगी मुस्कुराती है यहां. सफेद चांदी जैसे बालों में कंघी करती वह मुस्कुराती हुई कहती हैं कि हमें यहां बच्चे लाए थे. उन्होंने हमसे पूछा कि यहां अच्छा तो लग रहा है ना. हमने कहा, हां. तब से हम यहीं रह रहे हैं. गोमती नगर में रहने वाली सावित्री खरे कहती हैं कि बेटा भी है और पोता भी है. लेकिन सब खुश रहें इसलिए हम यहां हैं. उनके साथ रहने का दिल भी करता है तो क्या करें? शायद उन्हें किसी ऐसे का इंतजार था जिससे वह कुछ पल अपने दिल की बात कह सकें और यही वजह थी कि उन्होंने हमसे चलते वक्त पूछा अभी क्यों जा रहे हो?çÁ¢Î»è çÁ¢ÎæçÎÜè ·¤æ Ùæ×जिंदगी जीने की कला कोई 80 साल के राजेश दयाल से सीखे. इकलौता बेटा विदेश में जाकर बस गया. पत्‍‌नी गुजर चुकी थी. सो वे भी आश्रम में आकर रहने लगे. राजेश दयाल कविता लिखने के शौकीन हैं. कवि सम्मेलनों में भी जाते हैं. उसमें जोमिलता उससे उनका काम आसानी से चल जाता है. इसी तरह कोलकाता छोड़ कर लखनऊ आकर रहने लगे बिसेन दम्पति बहुओं की कलह ऊब चुके थे. अब वे वृद्ध आश्रम में शांति से हैं. नियमित ईवनिंग वॉक करते हैं. इस बार वेलेन्टाइन्स डे पर बिसेन साहब वाइफ को रोजबड देना नहीं भूले.ऊपर ऐसे सीनियर्स सिटीजन्स की बात की जो कभी या तो खुद ऐसी पोस्ट पर हुआ करते थे, जिसकी पेंशन उनके लिए जिन्दगी बसर करने के लिए काफी है या फिर वह बुजुर्ग जिनके बच्चे उनका खर्चा उठाने में पूरी तरह से सक्षम हैं,उमेश जोशी और राजेश दयाल की जिन्दादिली के बीच कई ऐसे मां या बाप भी हैं जिनकी आंखों में कहीं न कहीं इंतजार भी है कि कब उनके अपने उन्हें अपने साथ ले जाने के लिए आएंगे. शहर में समाज कल्याण विभाग द्वारा संचालित वृद्धाश्रम में ऐसे बुजुर्ग भी हैं जिनके बच्चों ने उन्हें पलट कर भी नहीं देखा और वह खुद यहां आकर रहने लगे. यहां 65 वर्षीय शिवओम शर्मा जैसे लोग भी हैं जिनके बेटे ने यह कहकर घर से बाहर निकाल दिया कि मैं तुम्हारा बेटा नहीं हूं.

Real black
उसकी बेनूर आंखों में न कोई ख्वाब है न जुबां पर कोई ख्वाहिश, लेकिन फिर भी वह लोगों को बोझ लग रहा है. आठ साल ·के रिंकु कि जिन्दगी ·कुछ सालों पहले आई हिट फिल्म ब्लैk कि तरह है लेकि न शायद मिशैल ·को मिस्टर सहाय जैसे हमदर्द सिर्फ परदे ·कि कहानी में ही मिल स·ते हैं. रिंकु के लिए एक हमदर्द तो क्या शहर में बनाए गये स्पेशल स्कुलों ने भी उसे रखने से मना कर दिया. पिछले 13 महीनों में वह कभी मेडिकल कालेज के फुटपाथ पर सोया तो कभी मथुरा तक ले जाया गया,
कभी रिंकू के नाम से पुकारा गया तो कभी शशांक के, लेकिन एक छत उसे नहीं मिल पाई जहां व सिर छिपा सके. दूसरों को क्या कहें ब्लाइंड बच्चों को रखने वाला मोहान रोड स्थित ब्लाइंड स्कूल तक ने उसे पनाह देने से मना कर दिया. इस स्कूल ने इसके पीछे लोकल गार्जियन न होने का लॉजिक दिया.एक कुर्सी पर वह सिर झुकाए घंटों बैठा रहा, जब उसे उठाया गया तो वह वहीं जोर जोर से हिलने लगा लगा जैसे कुछ कहना चाहता हो. रिंकू जिसे न दिखाई देता है और न ही वह सुन सकता है यहां तक कि वह बोल भी नहीं सकता. इस उम्र में बच्चों का फेवरेट बाल जिसे वह अपने इशारों पर नचाते हैं ंिरकू के हाथ में जैसे ही दिया गया उसने उसे मुंह में रख लिया. उसकी दुनिया अलग है. मानो यही उसकी जिन्दगी है. लेकिन इस मासूम को क्या मालूम कि उसकी इसी दुनिया ने उसे लोगों से अलग कर रखा है.ŒÜðÅUȤæ×ü ÂÚ ç×Üæ ‰ææ çÚU¢·ê¤2007 में चारबाग पर काम करने वाली एक संस्था को रिंकू यानी शशांक मिला था. उस वक्त वह गम्भीर रूप से बीमार था जिसके चलते उसे सीएसएमएमयू के चिल्ड्रेन वार्ड में एडमिट करा दिया गया था. करीब छह महीने बाद जब वह ठीक हुआ तो सीएसएमएमयू अथारिटीज ने फालोअप कराना शुरू किया लेकिन उसे कोई लेने नहीं आया.ç·¤âè Ùð ÙãUè´ ·¤è ×ÎÎईश्वर चाइल्ड वेलफेयर की अध्यक्ष सपना उपाध्याय कहती हैं कि जो संस्था इस बच्चे को यहां छोड़ गई थी, जब हमने उससे बात की तो उसने कहा कि इस तरह के बच्चे हमारे पास नहीं हैं. फिर हमने शहर की उन संस्थाओं से बात की जो इस तरह के बच्चों की मदद का दावा करती हैं. लेकिन हर कहीं हमें मना कर दिया गया. इस बच्चे को हमने ब्लाइंड स्कूल मथुरा भेज दिया. लेकिन तीसरे दिन इस बच्चे को मेडिकल कालेज के गेट पर देखा तो हैरान रह गई. वहां के लोग इसे चुपके से गेट पर छोड़ कर चले गये थे. तब से हमारी परेशानी और बढ़ गई. मेडिकल कालेज में हम इसे कहां तक रख सकते थे. रिंकू ने महीनों यहीं कैम्पस में गुजारा. पिछले तीन महीनों से वह सक्षम फाऊंडेशन की मदद से अशोक पुनर्वास केन्द्र में रह रहा है लेकिन उसे एक स्पेशल स्कूल की जरूरत है. °ÇU×èàæÙ ·ð¤ ÕæÎ ×Ùæ ·¤ÚU çÎØæचाइल्ड वेलफेयर कमेटी की मेम्बर साधना मेहरोत्रा ने रिंकू के बारे में कहा कि यह एक बच्चे की बात नहीं. बहुत बड़ा सवाल है कि ंिरंकू की तरह मजबूर दूसरे बच्चों की देखभाल कौन करेगा. हमारी चेयरपर्सन ने स्टेट ब्लाइंड स्कूल मोहान रोड को लेटर लिखा था इस बच्चे के एडमीशन के लिए. उन्होंने हामी भी भर ली, लेकिन फिर अचानक मना कर दिया. सरकार की तरफ से कोई इनसेंटिव नहीं मिलता. ऐसे बच्चों के लिए कम से कम एक संस्थान तो होना चाहिए. फिलहाल वह बच्चा अशोक पुनर्वास केन्द्र में रह रहा है, लेकिन क्या उसको पढ़ाई लिखाई का अधिकार नहीं है जो किसी स्पेशल स्कूल में ही सम्भव है. ŽÜ槢ÇU S·ê¤Ü Ùð çȤÚU ×Ùæ ·¤ÚU çÎØæसात साल का रिंकू सीडब्लूसी के लिए भी सवाल बन चुका था. मंगलवार को 5 मेम्बर्स की कमेटी ने एक अहम फैसला लेते हुए कहा कि रिंकू को मोहान रोड स्थित ब्लाइंड स्कूल में ही रखा जाए. यहां उसे पहले एडमीशन देने से मना कर दिया गया था. वहां उसे एडमीशन दिया जाए. लेकिन रिंकू की देखभाल करने वाले अशोक पुनर्वास केन्द्र के विनोद कुमार मिश्रा का कहना है कि मैंने आज सीडब्ल्यूसी के इस फैसले की जानकारी देते हुए ब्लाइंड स्कूल में रिंकू को लाने की बात कहीं, लेकिन उन्होंने फिर मना करते हुए रिंकू के लोकल गार्जियन को लाने की बात दोहराई. फिल्हाल रिंकू हमारे पास है. उन्होंने यह भी कहा कि इस तरह के बच्चों के लिए शहर में संस्थान